Changing bodies in Braj
Jayatarāma composed the Jogapradīpyakā in 1737 CE (Saṃvat 1794, Āśvina śukla 10) while the earliest dated manuscript dates from Saṃvat 1766. It is a compendium of haṭhayoga practices, which is not uncommon for his time. But this is written in the vernacular (a Braj-like old-ish Hindi dialect to be more precise). A further unusual feature (at least for me) is that it contains a short passage on changing bodies (parakāyapraveśa), the older Hindu cousin of grong 'jug. Here is what he says:
।। अथ परकाया प्रवेसन ।।
परपकजोग जबै सधि अावै, जोगी सिधि अागम की पावै ।
अपनी इच्छा विचरै जोई, करै भगंगम की क्रिया सोई ।। ७९२ ।।
सकल पवन अपने वसि अाई, नारी गोप्य रही कोई ।
मन की वृति न छानी कोई, जा जा समै चलत है सोई ।। ७९३ ।।
सकल सरीर दिव्यता पाय, अावर्ण सब ही गयो पलाय ।
वायुरूप जीव कौ जानौ, जहां वाय तहां करै पयानौ ।। ७९४ ।।
ताते जोगी यह मत पावै, परकाया प्रवेस करावै ।
जो कोई मृतक तन को देषै, अरू पुनि अपनी इच्छा पेषै ।। ७९५ ।।
करै प्रवेश तास में जाई, गुरु की क्रिपा जुक्ति सो पाई ।
सकल पवन मन सहित चलावै, अपने कंठि अनि ठहरावै ।। ७९६ ।।
बहुरौ मंन्त्र पढै ता वारा, जाकौ गुरु ते लहयौ विचारा ।
काक चंचवत मुष करि लेवै, अपने प्राण मृतक मुष देवै ।। ७९७ ।।
मरै अाप मृतक उठि धावै,पूर्व देह की समृत्य पावै ।
बहुरि जु अपना मन मैं चहै, यह तन छाडि वहै तन गहै ।। ७९८ ।।
।। दोहा ।।
परकाया परवेस नो, गुरुमुष पावै धीर ।
जयतराम जीर्ण तजै, जों तन गहे सरीर ।। ७९९ ।।
।। इति परकाया परवेसन ।।
Since I am not a specialist in mediaeval Hindi, I cannot pretend that I understand more than the average Sanskritist. The general outline of the procedure seems clear (manipulating breath, introducing it into the corpse's body through the mouth). I especially enjoyed 798ab: "You yourself will die, and the dead will arise running, [but] you will retain the memory of your old body."
Source: Jogapradīpyakā of Jayatarāma, critically edited by Swāmī Maheśānanda & Dr. B. R. Sharma, Shri G. S. Sahay, Shri R. K. Bodhe, Kaivalyadhama S.M.Y.M. Samiti, Lonavla 2006.
With thanks to Jason Birch for bringing this edition to my attention.
।। अथ परकाया प्रवेसन ।।
परपकजोग जबै सधि अावै, जोगी सिधि अागम की पावै ।
अपनी इच्छा विचरै जोई, करै भगंगम की क्रिया सोई ।। ७९२ ।।
सकल पवन अपने वसि अाई, नारी गोप्य रही कोई ।
मन की वृति न छानी कोई, जा जा समै चलत है सोई ।। ७९३ ।।
सकल सरीर दिव्यता पाय, अावर्ण सब ही गयो पलाय ।
वायुरूप जीव कौ जानौ, जहां वाय तहां करै पयानौ ।। ७९४ ।।
ताते जोगी यह मत पावै, परकाया प्रवेस करावै ।
जो कोई मृतक तन को देषै, अरू पुनि अपनी इच्छा पेषै ।। ७९५ ।।
करै प्रवेश तास में जाई, गुरु की क्रिपा जुक्ति सो पाई ।
सकल पवन मन सहित चलावै, अपने कंठि अनि ठहरावै ।। ७९६ ।।
बहुरौ मंन्त्र पढै ता वारा, जाकौ गुरु ते लहयौ विचारा ।
काक चंचवत मुष करि लेवै, अपने प्राण मृतक मुष देवै ।। ७९७ ।।
मरै अाप मृतक उठि धावै,पूर्व देह की समृत्य पावै ।
बहुरि जु अपना मन मैं चहै, यह तन छाडि वहै तन गहै ।। ७९८ ।।
।। दोहा ।।
परकाया परवेस नो, गुरुमुष पावै धीर ।
जयतराम जीर्ण तजै, जों तन गहे सरीर ।। ७९९ ।।
।। इति परकाया परवेसन ।।
Since I am not a specialist in mediaeval Hindi, I cannot pretend that I understand more than the average Sanskritist. The general outline of the procedure seems clear (manipulating breath, introducing it into the corpse's body through the mouth). I especially enjoyed 798ab: "You yourself will die, and the dead will arise running, [but] you will retain the memory of your old body."
Source: Jogapradīpyakā of Jayatarāma, critically edited by Swāmī Maheśānanda & Dr. B. R. Sharma, Shri G. S. Sahay, Shri R. K. Bodhe, Kaivalyadhama S.M.Y.M. Samiti, Lonavla 2006.
With thanks to Jason Birch for bringing this edition to my attention.
Labels: grong 'jug, parakāyapraveśa, tantric studies, yoga
2 Comments:
"Source: Jogapradīpyakā of Jayatarāma, critically edited by Swāmī Maheśānanda & Dr. B. R. Sharma, Shri G. S. Sahay, Shri R. K. Bodhe, Kaivalyadhama S.M.Y.M. Samiti, Lonavla 2006."
I have a question please. The book in also in english, is translated?
No, it is not. However, there is a fairly extensive overview in the introduction (pp. 1-166).
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